उड़ते पंछी-सा मेरा मन
दूर क्षितिज में उड़ते पंछी-सा मेरा मन
कभी इस ओर, तो कभी उस ओर
नित नयी मंजिल, नित नया इक ठोर
उम्मीदों के पंख फैलाये, चोंच में तिनके दबाये
ले चला बनाने नीड़ स्वप्न सुंदर जोड़
दूर क्षितिज में ंंंंंंंंंंं
सांझ हुई जब घिरने लगी घटाएँ घनघोर
बरसा पानी झूम के, दीखता न था ओर-छोर
बह गया हरेक तिनका बिखर कर
टूट गई खुली आँखों के सपनों की डोर
दूर क्षितिज में ंंंंंंंंं
– कवियत्री गीता सरीन
मेरठ कैण्ट (उ.प्र.)

Author: The Voice Of Public
✍️कलम हमारी........???? आवाज आपकी.......
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